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कुछ दूर तक हम दोनों चुपचाप चलती रहीं, एकाएक जालपा ने काँपती हुई आवाज में कहा—जोहरा, अगर इस वक्त तुम्हें मालूम हो जाए कि मैं कौन हूँ, तो शायद तुम नफरत से मुँह फेर लोगी और मेरे साए से भी दूर भागोगी।

इन लफ्जों में न मालूम क्या जादू था कि मेरे सारे रोएँ खड़े हो गए। यह एक रंज और शर्म से भरे हुए दिल की आवाज थी और इसने मेरी स्याह जिंदगी की सूरत मेरे सामने खड़ी कर दी। मेरी आँखों में आँसू भर आए। ऐसा जी में आया कि अपना सारा स्वाँग खोल दूँ। न जाने उनके सामने मेरा दिल क्यों ऐसा हो गया था! मैंने बड़े-बड़े काइएँ और छंटे हुए शोहदों और पुलिस अफसरों को चपर-गट्र बनाया है, पर उनके सामने मैं जैसे भीगी बिल्ली बनी हुई थी। फिर मैंने जाने कैसे अपने को सँभाल लिया। मैं बोली तो मेरा गला भी भरा हुआ था—यह तुम्हारा खयाल गलत है देवी! शायद तब मैं तुम्हारे पैरों पर गिर पडूंगी। अपनी या अपनों की बुराइयों पर शर्मिंदा होना सच्चे दिलों का काम है।

जालपा ने कहा लेकिन तुम मेरा हाल जानकर करोगी क्या? बस, इतना ही समझ लो कि एक गरीब अभागिन औरत हूँ, जिसे अपने ही जैसे अभागे और गरीब आदमियों के साथ मिलने-जुलने में आनंद आता है।

इसी तरह वह बार-बार टालती रही, लेकिन मैंने पीछा न छोड़ा, आखिर उसके मुँह से बात निकाल ही ली।

रमा ने कहा—यह नहीं, सबकुछ कहना पड़ेगा।

जोहरा–अब आधी रात तक की कथा कहाँ तक सुनाऊँ। घंटों लग जाएँगे। जब मैं बहुत पीछे पड़ी, तो उन्होंने आखिर में कहा, मैं उसी मुखबिर की बदनसीब औरत हूँ, जिसने इन कैदियों पर यह आफत ढाई है। यह कहतेकहते वह रो पड़ीं। फिर जरा आवाज को सँभालकर बोलीं, हम लोग इलाहाबाद के रहनेवाले हैं। एक ऐसी बात हुई कि इन्हें वहाँ से भागना पड़ा। किसी से कुछ कहा न सुना, भाग आए। कई महीनों में पता चला कि वह यहाँ हैं।

रमा ने कहा—इसका भी किस्सा है। तुमसे बताऊँगा कभी, जालपा के सिवा और किसी को यह न सूझती।

जोहरा बोली-यह सब मैंने दूसरे दिन जान लिया। अब मैं तुम्हारी रग-रग से वाकिफ हो गई। जालपा मेरी सहेली है। शायद ही अपनी कोई बात उन्होंने मुझसे छिपाई हो। कहने लगीं, जोहरा मैं बड़ी मुसीबत में फँसी हुई हूँ। एक तरफ तो एक आदमी की जान और कई खानदानों की तबाही है, दूसरी तरफ अपनी तबाही है। मैं चाहूँ, तो आज इन सबों की जान बचा सकती हूँ। मैं अदालत को ऐसा सबूत दे सकती हूँ कि फिर मुखबिर की शहादत की कोई हैसियत ही न रह जाएगी, पर मुखबिर को सजा से नहीं बचा सकती। बहन, इस दुविधा में मैं पड़ी नरक का कष्ट झेल रही हूँ। न यही होता है कि इन लोगों को मरने दूँ और न यही हो सकता है कि रमा को आग में झोंक दूं। यह कहकर वह रो पड़ीं और बोलीं-बहन, मैं खुद मर जाऊँगी, पर उनका अनिष्ट मुझसे न होगा। न्याय पर उन्हें भेंट नहीं कर सकती। अभी देखती हूँ, क्या फैसला होता है। नहीं कह सकती, उस वक्त मैं क्या कर बै? शायद वहीं हाईकोर्ट में सारा किस्सा कह सुनाऊँ, शायद उसी दिन जहर खाकर सो रहूँ।

इतने में देवीदीन का घर आ गया। हम दोनों विदा हुई। जालपा ने मुझसे बहुत इसरार किया कि कल इसी वक्त इधर आना। दिन भर तो उन्हें बात करने की फुरसत नहीं रहती। बस वही शाम को मौका मिलता था। वह इतने रुपए जमा कर देना चाहती हैं कि कम-से-कम दिनेश के घरवालों को कोई तकलीफ न हो। दो सौ रुपए से ज्यादा जमा