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रमानाथ—इसका उपाय तो मेरे पास है। तुम्हें कैसा कंगन पसंद है?

जालपा अब अपने कृत्रिम संयम को न निभा सकी। आलमारी में से आभूषणों का सूची-पत्र निकालकर रमा को दिखाने लगी। इस समय वह इतनी तत्पर थी, मानो सोना लाकर रखा हुआ है, सुनार बैठा हुआ है, केवल डिजाइन ही पसंद करना बाकी है। उसने सूची के दो डिजाइन पसंद किए। दोनों वास्तव में बहुत ही सुंदर थे, पर रमा उनका मूल्य देखकर सन्नाटे में आ गया। एक-एक हजार का था, दूसरा आठ सौ का।

रमानाथ—ऐसी चीजें तो शायद यहाँ बन भी न सकें, मगर कल मैं जरा सर्राफ की सैर करूँगा।

जालपा ने पुस्तक बंद करते हुए करुण स्वर में कहा—इतने रुपए न जाने तुम्हारे पास कब तक होंगे? उँह, बनेंगे-बनेंगे, नहीं कौन कोई गहनों के बिना मरा जाता है।

रमा को आज इसी उधेड़बुन में बड़ी रात तक नींद न आई। ये जड़ाऊ कंगन इन गोरी-गोरी कलाइयों पर कितने खिलेंगे। यह मोह-स्वप्न देखते-देखते उसे न जाने कब नींद आ गई।