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घर से बाहर पाँव निकाले।

दयानाथ हमसे तो भाई, यह अँगरेजियत नहीं देखी जाती। क्या करें? संतान की ममता है, नहीं तो यही जी चाहता है कि रमा से साफ कह दूँ, भैया अपना घर अलग लेकर रहो। आँख फूटी, पीर गई। मुझे तो उन मर्दो पर क्रोध आता है, जो स्त्रियों को यों सिर चढ़ाते हैं। देख लेना, एक दिन यह औरत वकील साहब को दगा देगी।

रमेश–महाशय, इस बात में मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ। यह क्यों मान लेते हो कि जो औरत बाहर आती-जाती है, वह जरूर ही बिगड़ी हुई है? मगर रमा को मानती बहुत है। रुपए न जाने किसलिए दिए? दयानाथ–मुझे तो इसमें कुछ गोलमाल मालूम होता है। रमा कहीं उससे कोई चाल न चल रहा हो? इसी समय रमा भीतर से निकला आ रहा था। अंतिम वाक्य उसके कान में पड़ गए। भौंहें चढ़ाकर बोला—जी हाँ, जरूर चाल चल रहा हूँ। उसे धोखा देकर रुपए ऐंठ रहा हूँ। यही तो मेरा पेशा है! दयानाथ ने झेंपते हुए कहा तो इतना बिगड़ते क्यों हो, मैंने तो कोई ऐसी बात नहीं कही।

रमानाथ—पक्का जालिया बना दिया और क्या कहते? आपके दिल में ऐसा शुबहा क्यों आया, आपने मुझमें ऐसी कौन सी बात देखी, जिससे आपको यह खयाल पैदा हुआ-मैं जरा साफ-सुथरे कपड़े पहनता हूँ, जरा नई प्रथा के अनुसार चलता हूँ, इसके सिवा आपने मुझमें कौन सी बुराई देखी—मैं जो कुछ खर्च करता हूँ, ईमान से कमाकर खर्च करता हूँ। जिस दिन धोखे और फरेब की नौबत आएगी, जहर खाकर प्राण दे दूंगा। हाँ, यह बात है कि किसी को खर्च करने की तमीज होती है, किसी को नहीं होती। वह अपनी सुबुद्धि है, अगर इसे आप धोखेबाजी समझें, तो आपको अख्तियार है। जब आपकी तरफ से मेरे विषय में ऐसे संशय होने लगे, तो मेरे लिए यही अच्छा है कि मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊँ। रमेश बाबू यहाँ मौजूद हैं। आप इनसे मेरे विषय में जो कुछ चाहें, पूछ सकते हैं। यह मेरे खातिर झूठ न बोलेंगे। सत्य के रंग में रंगी हुई इन बातों ने दयानाथ को आश्वस्त कर दिया। बोले जिस दिन मुझे मालूम हो जाएगा कि तुमने यह ढंग अख्तियार किया है, उसके पहले मैं मुँह में कालिख लगाकर निकल जाऊँगा। तुम्हारा बढ़ता हुआ खर्च देखकर मेरे मन में संदेह हुआ था, मैं इसे छिपाता नहीं हूँ, लेकिन जब तुम कह रहे हो कि तुम्हारी नीयत साफ है, तो मैं संतुष्ट हूँ। मैं केवल इतना ही चाहता हूँ कि मेरा लड़का चाहे गरीब रहे, पर नीयत न बिगाड़े। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह तुम्हें सत्पथ पर रखे।

रमेश ने मुसकराकर कहा—अच्छा, यह किस्सा तो हो चुका, अब यह बताओ, उसने तुम्हें रुपए किसलिए दिए! मैं गिन रहा था, छह नोट थे–शायद सौ-सौ के थे। रमानाथ–ठग लाया हूँ।

रमेश–मुझसे शरारत करोगे तो मार बैलूंगा। अगर जट ही लाए हो, तो भी मैं तुम्हारी पीठ ठोकूँगा, जीते रहो, खूब जटो, लेकिन आबरू पर आँच न आने पाए। किसी को कानोकान खबर न हो। ईश्वर से तो मैं डरता नहीं। वह जो कुछ पूछेगा, उसका जवाब मैं दे लूँगा, मगर आदमी से डरता हूँ। सच बताओ, किसलिए रुपए दिए? कुछ दलाली मिलने वाली हो तो मुझे भी शरीक कर लेना।

रमानाथ–जड़ाऊ कंगन बनवाने को कह गई हैं।