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चाय-पार्टी में कोई विशेष बात नहीं हुई। रतन के साथ उसकी एक नाते की बहन और थी। वकील साहब न आए थे। दयानाथ ने उतनी देर के लिए घर से टल जाना ही उचित समझा। हाँ, रमेश बाबू बरामदे में बराबर खड़े रहे। रमा ने कई बार चाहा कि उन्हें भी पार्टी में शरीक कर लें, पर रमेश में इतना साहस न था। जालपा ने दोनों मेहमानों को अपनी सास से मिलाया। ये युवतियाँ उन्हें कुछ ओछी जान पड़ीं। उनका सारे घर में दौड़ना, धम-धम करके कोठे पर जाना, छत पर इधर-उधर उचकना, खिल-खिलाकर हँसना, उन्हें हुड़दंगपन मालूम होता था। उनकी नीति में बहू-बेटियों को भारी और लज्जाशील होना चाहिए था। आश्चर्य यह था कि आज जालपा भी उन्हीं में मिल गई थी। रतन ने आज कंगन की चर्चा तक न की।

अभी तक रमा को पार्टी की तैयारियों से इतनी फुरसत नहीं मिली थी कि गंगू की दुकान तक जाता। उसने समझा था, गंगू को छह सौ रुपए दे दूँगा तो पिछले हिसाब में जमा हो जाएँगे। केवल ढाई सौ रुपए और रह जाएँगे। इस नए हिसाब में छह सौ और मिलाकर फिर आठ सौ रह जाएँगे। इस तरह उसे अपनी साख जमाने का सुअवसर मिल जाएगा। दूसरे दिन रमा खुश होता हुआ गंगू की दुकान पर पहुंचा और रोब से बोला—क्या रंग-ढंग है महराज, कोई नई चीज बनवाई है इधर?

रमा के टाल-मटोल से गंगू इतना विरक्त हो रहा था कि आज कुछ रुपए मिलने की आशा भी उसे प्रसन्न न कर सकी। शिकायत के ढंग से बोला-बाबू साहब, चीजें कितनी बनीं और कितनी बिकीं, आपने तो दुकान पर आना ही छोड़ दिया। इस तरह की दुकानदारी हम लोग नहीं करते। आठ महीने हुए, आपके यहाँ से एक पैसा भी नहीं मिला।

रमानाथ–भाई, खाली हाथ दुकान पर आते शर्म आती है। हम उन लोगों में से नहीं हैं, जिनसे तकाजा करना पड़े। आज यह छह सौ रुपए जमा कर लो और एक अच्छा सा कंगन तैयार कर दो। गंगू ने रुपए लेकर संदूक में रखे और बोला बन जाएँगे। बाकी रुपए कब तक मिलेंगे? रमानाथ–बहुत जल्द। गंगू–हाँ बाबूजी, अब पिछला साफ कर दीजिए।

गंगू ने बहुत जल्द कंगन बनवाने का वचन दिया, लेकिन एक बार सौदा करके उसे मालूम हो गया था कि यहाँ से जल्द रुपए वसूल होने वाले नहीं। नतीजा यह हुआ कि रमा रोज तकाजा करता और गंगू रोज हीले करके टालता। कभी कारीगर बीमार पड़ जाता, कभी अपनी स्त्री की दवा कराने ससुराल चला जाता, कभी उसके लड़के बीमार हो जाते। एक महीना गुजर गया और कंगन न बने। रतन के तकाजों के डर से रमा ने पार्क जाना छोड़ दिया, मगर उसने घर तो देख ही रखा था। इस एक महीने में कई बार तकाजा करने आई। आखिर जब सावन का महीना आ गया तो उसने एक दिन रमा से कहा-वह सुअर नहीं बनाकर देता, तो तुम किसी और कारीगर को क्यों नहीं देते?

रमानाथ–उस पाजी ने ऐसा धोखा दिया कि कुछ न पूछो, बस रोज आजकल किया करता है। मैंने बड़ी भूल की,