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गर्भ-रण्डा-रहस्य।

(४३)


मा गरजी अनखाय, अजी शुभ काम किया है।
इस को राँड बनाय, सुहाग बचाय लिया है॥
अब कुल के प्रतिकूल, न भाँमर पड़ने दूँगी।
सत्य 'सनातन-धर्म', न हाय! बिगड़ने दूँगी॥

(४४)


विवश पिता ने पञ्च, और पंडित बुलवाये।
सब ने आशय जान, गाल इस भाँति बजाये॥
जो लड़की कर ब्याह, सुहाग विहीन जनी है।
वर सकता है कौन, उसे पद्धति न बनी है॥

(४५)


मा ने नयन नचाय, कहा कुछ और कहोगे।
अथवा पञ्च-प्रमाण, मान कर मौन रहोगे॥
किया जनक ने शोच, मनोरथ हा! न फलेगा।
परखे पंडित पञ्च, न इन से काम चलेगा।

(४५)


बेटी बिन अपराध, रही घर हाय! कुमारी।
नारि करे उपहास, मिले पशु-पंच-अनारी॥
शुभचिन्तक पाखण्ड, खण्ड के सुभट घने हैं।
अगुआ हे हरि हाय, हमारे बधिक बने हैं॥