पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४
गर्भ-रण्डा-रहस्य।

(५१)


पितु को मौन निहार, प्रतारक पञ्च पुकारे।
सुनलो धर्म-प्रबन्ध,—विधायक बोल हमारे॥
जो सब के प्रतिकूल, यथारुचि बात कहोगे।
तो तुम अपनी जाति, पाँति से अलग रहोगे॥

(५२)


यों बल दर्प दिखाय, उठे सब ऊत अड़ीले।
पण्डित भोजन-भट्ट, गये गौरव-गरबीले॥
सब से पिण्ड छुड़ाय, जनक जननी से बोला।
फूटे तुम पर और, जाति पर बम का गोला॥

(५३)


अब से भोग-विलास, योग सब तुम से छोड़ा।
त्यागे घर पुर देश, जाति मत से मुख मोड़ा॥
इस प्रकार धिक्कार, विपिन की ओर सिधारा।
विछुड़े पति ने आय, न अब तक देखी दारा॥

(५४)


पति का पक्ष गिराय, विजय जननी ने पाई।
मुझ को राँड बताय, कहीं पर की न सगाई॥
बुआ गई ससुराल, रही मा निपट अकेली।
सखियों में सब ठौर, खेल खुल खुल मैं खेली॥