पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५
गर्भ-रण्डा-रहस्य।

(५५)


द्वादश वर्ष बिताय, गया बालकपन मेरा।
उमगा यौवन अङ्ग, ढङ्ग रस-पति ने फेरा॥
अँखियों में मद-मत्त, मनोभव की छवि छाई।
बढ़ने लगे उरोज, कमर की घटी मुटाई॥

(५६)


पंकज, कदली, कंबु, चाप, चपला,शशि,तारे।
दाड़िम, श्रीफल, सेब, सरस-बिम्बा-अरुणारे॥
भृङ्ग, भुजङ्ग, कुरङ्ग, कीर, कोकिल, हरि, हाथी।
मुझ नवला के अङ्ग, बने इन सब के साथी॥

(५७)


मेरा अनुपम रूप, नारि नर सब को भाया।
जाति-प्रथा पर घोर, कठोर कलंक लगाया॥
जिस के लिये अनीति, उदर ही में रच डाली।
हा! वह कल्पित राँड, बने किस की घरवाली॥

(५८)


मैं अपना मुख-चन्द्र, चहूँ दिस चमकाती थी।
नव युवकों की ओर, दिव्य-दुति दमकाती थी॥
चोटी लटक दिखाय, त्रिगुण में कसलेती थी।
नागिन सी बल खाय, न किसको डसलेती थी॥