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पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/२७

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गर्भ-रण्डा-रहस्य।

(५९)


मेरे नयन निहार, पलक उपमा के झूले।
खंजन, मीन, कुरङ्ग, डरे अरविन्द न फूले॥
जिस रसिया से आँख, अचानक लड़जाती थी।
बिजली सी उस प्रेम, भक्त पर पड़जाती थी॥

(६०)


करती थी मुखपद्म, खिलाय विलास बतीसी।
युगल दौज के इन्दु, उगलते थे बिजली सी॥
जिस की ओर विलोक, तनक मैं हँसजाती थी।
उस की चाह चखोर,-चसक में फँसजाती थी॥

(६१)


श्याम चिबुक का बिन्दु, घटाता था दर तिल की।
करता था कलकण्ठ, निपट निन्दा कोकिलकी॥
मेरी मधुर सुमञ्जु, रसीली सुनकर बोली।
करती थी गुण-गान, तरुण रसिकों की टोली॥

(६२)


गोल कठोर उरोज, कुम्भ उन्नति के उकसे।
कञ्चुक में कर बन्द, कसे दरसे कन्दुक से॥
कहते थे ललचाय, छैल छलिया आपस के।
कसके मसके हा! न, नये निबुआ दो रस के॥