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गर्भ-रण्डा-रहस्य।

(६३)


भूषण धार अमोल, ओढ़ कर सुन्दर साड़ी।
कर सोलह शृङ्गार, निरखती थी फुलवाड़ी॥
मदन-दूत दो चार, तड़पते मिल जाते थे।
दर्शन का फल पाय, सुमन से खिल जाते थे॥

(६४)


पण्डितराज प्रवीण, पुरोहित, पञ्च, पुजारी।
कहते थे छवि देख, चन्द्रवदने! बलिहारी॥
बाहर के कुलवीर, धर्म-दुहिता कहते थे।
भर भीतर दुर्भाव, भीरु व्याकुल रहते थे॥

(६५)


जननी ने घर एक, प्रबन्धक रख छोड़ा था।
जिस का मेल-मिलाप, दिवस निशि का जोड़ा था॥
हम दोनों पर प्यार, एक मन से करता था।
युगल तुम्बियाँ बाँध, धर्मसरिता तरता था॥

(६६)


अँगुली पै दिन रात, मनोज-विलास नचाया।
पर मेरा मन मस्त, किसी ने पकड़ न पाया॥
कर सकता फिर कौन, यथारुचि मन के चीते।
इस विधि से छै सात, समङ्गल हायन बीते॥