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गर्भ-रण्डा-रहस्य।

(६७)


अटके श्वान अनेक, मदन की मार पड़ी थी।
कुतिया पूँछ दबाय, अकेली विकल खड़ी थी॥
मानो प्रकृति विहार,-विडम्बन दिखलाती थी।
नर नारी बिन जोड़, बुरे यह सिखलाती थी॥

(६८)


तजें न दम्पति-भाव, सकल जोड़े सुखभोगी।
नर मादा बिन जोड़, रहें तो यह गति होगी॥
मैं समझी अब एक, ठिकाना अपना करलूँ।
विधवापन को छोड़, किसी नागर को वरलूँ॥

(६९)


फिर मा का मुख देख, भबूका मन में भबका।
माता बन कर वैर, ले रही मुझ से कब का॥
कुल का किया विनाश, निकाला घर से पति को।
करदी धन की धूलि, तजेगी हा! न कुमति को॥

(७०)


रुका न मन का रोष, अकड़ मा से यों अटकी।
मुझ को जन्म बिगाड़, नरक में तू ने पटकी॥
किया विरोध वियोग, न पति की सम्मति मानी।
खल-मण्डल की बात, अनुत्तम उत्तम जानी॥