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गर्भ-रण्डा-रहस्य।

(७१)


अब तक मैं ने प्रेम, पसार न खेल किया है।
कहदे किस के साथ, निरन्तर मेल किया है॥
जिस चाकर की लाग, लगी तुझ से लड़ती है।
मेरे तन पर छाँह, न उस की भी पड़ती है॥

(७२)


तू जिन को मुनि-राज, महाजन मान चुकी है।
जिन को धर्म-धुरीण, विशुद्ध बखान चुकी है॥
क्या उन के अपवित्र,-विचित्र चरित्र दुरे हैं।
अगुआ पण्डित पञ्च, प्रपञ्च-प्रवीण बुरे हैं॥

(७३)


ठगियों के सब ठाठ, निषिद्ध निहार चुकी हूँ।
घूम घूम कर ठौर, ठौर झख मार चुकी हूँ॥
रेवड़ भर में दम्भ, अबोध अधर्म समाये।
धर्म, सुशील, सुकर्म, किसी के निकट न पाये॥

(७४)


परखे सन्त, महन्त, पुरोहित, पण्डित, पण्डे।
देख लिये रस रङ्ग, भरे सब के हथखण्डे॥
झगड़ें झक्कड़ झूठ, भपट झंझट के झोंगे।
धर्म-वीर, व्रत-शील, विशारद बिरले होंगे॥