सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२०
गर्भ-रण्डा-रहस्य।

(७५)


दीन, दरिद्र, अनाथ, अन्ध संकट सहते हैं।
खल पाखण्ड पसार, सदा सुख से रहते हैं॥
छलियों का सब ठौर, अधिक आदर होता है।
हँसता फिरे अधर्म, धर्म घुट घुट रोता है॥

(७६)


आप अनेक विवाह, बुढ़ापे तक करते हैं।
धार धार सिर मौर, नई वरनी वरते हैं॥
पर विधवा आजन्म, दूसरा वर न वरेगी।
कर पञ्चामृत-पान, पुण्य भर पेट करेगी॥

(७७)


करता फिरे पवित्र, पतुरिया का घर कोई।
छिड़क रहा है लूत, बाल-विधवा पर कोई॥
ससुर अछूता प्यार, पतोहू पर करता है।
अनुज-बधू की ओर, जेठ सिसकी भरता है॥

(७८)


बालक जन छै सात, मरी जिस की घरवाली।
रखली उस ने राँड, सड़ाइन अथवा साली॥
इतने पर भी हाय, तनक संतोष न देखा।
विधवा की विपरीत,—रीति पर करे परेखा॥