पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१
गर्भ-रण्डा-रहस्य।

(७९)


जिस घर में दो चार, सुहागिन रहती होंगी।
भोग-विलास-प्रसङ्ग, परस्पर कहती होंगी॥
विधवा उन की प्रेम,—कथा सब सुनती होगी।
मदन मसोसे मार, मार सिर धुनती होगी॥

(८०)


जिस विधवा का गर्भ, जलोदर सा बढ़ता है।
घरवालों पर घोर, पाप उस का चढ़ता है॥
पोच पेट पटकाय, प्राण शिशु के हरते हैं।
गिर न सके तो हाय, डबल हत्या करते हैं॥

(८१)


सुन कर मेरे बोल, बिगड़ कर बोली मैया।
बनजा लाज बिसार, किसीकी "धरमलुगैया"॥
कालकूट कर कोप, यहाँ उगले मत संडी।
चकले में चल बैठ, कहा कर कुलटा रंडी॥

(८२)


मा के परुष कठोर, शब्द सुन कर मैं रोई।
मन में समझी हाय, न मेरा हितकर कोई॥
आगे वचन असार, वृथा न कहे न कहाये।
लौट पड़ी चुपचाप, अश्रु अविराम बहाये॥