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गर्भ-रण्डा-रहस्य।
(८३)
पर विष-बोरी बात, गढ़ी उर में बरछी सी।
मैं अपनी सुधि भूल, गिरी भिंच गई बतीसी॥
मा ने विकल विलोक, बिछा कर खाट सुलाई।
खिड़की खोल पुकार, पड़ोसिन पास बुलाई॥
(८४)
चन्दनश्वेत, उशीर*[१], छड़ीला कूट खरल में।
घोट घना घनसार†[२], मिलाये शीतल जल में॥
मेरे तन पर ठौर, ठौर छिड़का वह पानी।
हुआ न कुछ भी चेत, मृतक जननी ने जानी॥
(८५)
बाहर जल की ठंड, आग भीतर की भड़की।
उछल पड़ा हृत्पिण्ड‡[३], धड़ाधड़ छाती धड़की॥
उखड़ा श्वास सवेग, चली चञ्चल गति नाड़ी।
इतने पर भी हाय, न चमका चित्त खिलाड़ी॥
(८६)
बाल बिचूर बिचूर, पड़ोसिन घी मलती थी।
बिजना जल में बोर, बोर जननी झलती थी॥
ठीक पड़ा प्रतिकार, निकाली गरमी तनकी।
पाय सुगन्धित वायु, घटी व्याकुलता मनकी॥