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गर्भ-रण्डा-रहस्य।
(८७)
शीतल सौरभ पाय, तमक तन्द्रा उठ भागी।
हलका हुआ शरीर, शिथिल चेतनता जागी॥
सुनती थी सब शब्द, न अँखियाँ खोल सकी मैं।
था नीरस मुख बन्द, न कुछ भी बोल सकी मैं॥
(८८)
बीत गया अतिकाल, न मेरी सुगति निहारी।
तब तो खाय पछाड़, विकल बोली महतारी॥
निकला हाय! नसीब, ललीका निपट निकम्मा।
अब क्या करूँ उपाय, बोल चुनमुन की अम्मा!
(८९)
जो न बटुकजी*[१] वीर, जेल में जाकर मरते।
तो वे उचित उपाय, आय बिटिया का करते॥
उन सा सिद्ध-प्रसिद्ध, प्रतापी नर न मिलेगा।
'कमला'†[२] का मुख पद्म, अरी क्या अब न खिलेगा।
(९०)
देख मुझे बिन चेत, पड़ोसिन भी घबराई।
अपने अँसुआ पोंछ, बिलखती मा समझाई॥