पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/४८

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गर्भ-रण्डा रहस्य। (१३६) जो डिया निरुपाय, न पेट गिरा सकती है। मूदगर्भ बतलाय, महोदर को ढकती है। छोड़ गेह, पुर दूर, जाय बालक जनती है। पर वह धोखा खाय, न अन्य-बधू बनती है। (१४०) सब का सर्व सुधार, सदेव किया करते हैं। विधवा-दल को प्रेम,-प्रसाद दिया करते हैं। इन अगुओं के साथ, मुयश का स्रोत बहाना। छोड़ जाति-कुल-धर्म,कर्म कुलटा न कहाना॥ (१४१) यों कुल, जाति महत्त्व, वड़े हित से समझाया। पर मा का वह पोच, प्रलापन मुझ कोभाया। क्या करती प्रतिवाद, निरा उलटा फल होता। मङ्गल के प्रतिकूल, असीम अमङ्गल होता। (१४२) इतना कहा अवश्य, अरी! अब तो चुप होजा। तनक रही है रात, कृपा कर सुख से सोजा ॥ सुन कर मेरी बात, कहा कटु शब्द न कोई। जननी अपने साथ, सुलाकर मुझ को सोई॥