पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/४९

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३८ गर्भ-रण्डा-रहस्य । (१४३) बीत गई वह रात, उठी सो कर हम दोनों। करने लगीं विचार, शुद्ध हो कर हम दोनों। जननी ने कुछ देर, कही फिर धर्म-कहानी। सुन कर मैं ने जन्म, सफल करने की ठानी। (१४४) ऊपर से जिस भूल, भरे मत को अपनाया। प्रतिभा का यह शत्रु, न भीतर घुसने पाया ॥ समझाया चुपचाप, अरे मन ! रङ्ग-रँगीले । कुछ दिन धर्माभास, रूप मृग-जल भी पीले ॥ (१४५) ठगियों को धन छोड़, न यौवन ठगने दूंगी। जीवन 4 व्यभिचार, कलङ्ग न लगने दूंगी॥ यो प्रचण्ड प्रण रोप, रोक तन-मन की बाधा। पूज मदन-गोपाल, लोकवल्लभ व्रत साधा ॥ उठती पिछली रात, मनोहर गाय: प्रभाती। मजन कर गोविन्द, भजन का तार लगाती॥

  • (गर्भरण्डा की प्रभाती)

वह ऊबी रवि की लालिमा- जगादे इस मैया ॥ टंक ॥