पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/५०

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गर्भ-रएडा-रहस्य । ३६ हरि-मन्दिर में जाय, ध्यान माधव का धरती । बगलों के सिर तोड़, दम्भ के कान कतरती ॥ (१४७) प्रतिमा का जड़भाव, न जी के भीतर भरती। ऊपर का अनुराग, अड़ा कर पूजा करती। पीली फटते ही उठ बैठे, धोरी धेनु बरैया । अबलों देख, पहा सोता है, तेरा लाल कन्हैया ॥ व० अ० २० ला० ज० इ० भैया ॥ मारे बछडे खोल चुका है, मसल-पारी भैा । जिसने तेरी परदादी सी, व्याही बड़ी लुगैया ॥ व. ऊ०र० ला० ज०६० मैया जागे ग्वाल धुसे खिरको म, कादं खोल पवैया । हाँक लेचले बसबिट को, रही न कोई गैया । व० अ० २० ला० ज०० माखन-चोर दही लटेगा, नाचेगा नचकैया । विघ्न हरे शङ्कर का बेटा, चूहे पे चढ़वया ॥ व. अ. र० ला. ज. इ० मैया ॥

  • (गर्भरण्डा का ध्यान )

कस्तूरी तिलकं ललाटपटले, वक्ष म्थले कौस्तुभं नासाले वरमतिक करतले, वे गु करे करणम् । सर्वाङ्गे हरिचन्दनं सुललितं, कण्ठे च मुक्रावली गोपत्री परिवेष्टितो विजयते, गोपालच्दामणिः । गोपालसहस्रनाम मैया ॥