पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/५१

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(१४८) गर्भरण्डा-रहस्य । यों रच ढोंग ढपान, रीझ का रस टपकाती। प्रभु-पादोदक पान, किये बिन अन्न न खाती॥ टाकुर को भरपूर, भक्ति अपनी दरसाती। ठकुरानी पर पुष्ट, प्रेम का रस बरसाती॥ उद्यापन, उपवास, दान,जप करना सीखी। भवसागर से पार, उतरना-तरना सीखी। (१४१) गोपालसहस्रनाम गौरव का गुटका। करती मङ्गल-पाठ, मान देकर सम्पुट का ॥ सुनती व्यास प्रणीत, पुराण महा सुखपाती। मन में रास-विलास, भागवत के भरलाती। (१५०) जितने सन्त, महन्त, अतिथि,अभ्यागताते। गोपनीय ध्रुव-धर्म, सुकर्म सुधार बताते ॥ कर उन का आतिथ्य, यथोचित आदर देती। छोड़ मान अपमान, महाफल सब से लेती। 16 19 सम्पुट पद्य बालक्रीडासमासको, नवनीतस्य तस्करः । गोपालकामिनीजारश्चौरजारशिखामणिः॥ -गोपालसहस्रनाम