पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/५२

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गर्भरण्डा-रहस्य । ४१ जब कोई व्रत-पर्व, दिवस उत्सव का आता। , तब मेरा मन मुग्ध, अमितानन्द मनाता॥ जगमोहन में बैठ, राग-रस-रङ्ग बहाती । बीणा मधुर बजाय, भारती बन कर गाती । (१५२) सुन कर बीणा, गान, रसिक मन्दिर में आते। ठाकुर की सुधि भूल, अनुग मेरे बन जाते ॥ (गर्भरण्डा के गीतो की वानगी)

  • १-बाँसुरी पर गीत।

बरसाय सुधा-रस कानन में- यरे बॉमुरिया विष बोइबो जाने ॥ टेक ॥ सुन वीर विसासिन बाज रही, अपनी सुधि मोहि न श्राज रही । न रही कुल-कानि न लाज रही, उपजाय उमंग बिगोइबो जाने। २० स० का० ब. बां. बि. बो० जाने । तन को झकझोर मुलावति है, मन को चहु ओर डुलापति है। व्रजराज के तीर बुलावति है, चुपचाप सहेट में सोइबो जाने ॥ य० सु. का. व. बां. वि. बो० जाने ॥ हम को रसरीति सिखाय चुकी, कुटिला करतूत दिखाय चुकी । उगनीन में नाम लिखाय चुकी, गुरु लोगन में पति खोइचो जाने । ० सु० का० ब० बां. बि. बो. जाने । वज में व्रत कौन सती करती, धन धीर न शङ्कर की धाती। अनघा मुरलीधर पं मरती, धुनिधारिनि धर्म टुबोइलो जान ॥ ब.सु. का. ३० वां० वि० यो० जाने ।