पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/६१

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गर्भ-रएडा-रहस्य । लाल गुलाल उड़ाय, कीच केशर की छिड़की। सब को नाच नचाय, सुगतिकी खोलीखिड़की॥ (१७२) फैल गया हुरदङ्ग, होलिका की हलचल में । फूल फूल कर फाग, फलामहिलामण्डल में। जननी भी तज लाज, बनीव्रजमक्खो सबकी। पर मैं पिण्ड छुड़ाय, जवनिका में जादबकी। (१७३) कूद पड़े गुरुदेव, चेलियों के शुभ दल में। सदुपदेश का सार, भरा फागुन के फल में ॥ उठो अब ग्बल ग्वज खेलो होली ॥ लम लाज को फरिया फाडो, चीर सकुच की चोली । रोक टोक पर ठोकर मारो, ठमको ठान ठठोली ॥ उठो अब खल खल खेलो होली ॥ लाल गुलाल अबार मिलालो, डालो भर भर झोली । अब ऊल वह रंग उलीचो, जिसमें केशर घाली ॥ उठो अब खुल खल खेलो होली । गोकुल में गोलोकगमन की, बोल रहे गुरु बोली । मायावाद जनक शहर का, पोल कृपाकर खोली॥ उठो अब मुल म्वु न खे नो होली ॥

  • जमावावेदूपिका । जवानका परदा-प्राइ ।