पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/७३

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62 गर्भ-रण्डा-रहस्य। । २१५) प्रकट ऊपरी प्रेम, मन्त्र सुरगुरु का माना। फिर यों अपना इष्ट, कूट प्रण ठान बखाना ॥ जो सब देव उदार, चार वर सादर देंगे। तो पै अधिकार, कदाचित् कर भी लेंगे। (२१६) मान गये गुरु बात, न समझे मेरे छल को। अटल वरों की मांग, सुना दी सुर-मण्डल को॥ सुनकर बोले 'देव, न कर बेजोड़ वहाने। दे हमको सुखदान, माँगले वर मनमाने ॥ (२१७) माँग, माँग वर माँग, बोल वरनी ! वर देंगे। बस न करेंगे आज, तुझे बस में कर लेंगे। जीवन-दातार, व्यग्र वृन्दारक हाँगे । तब मैं ने वर चार, विवश होकर यों माँगे ॥ (२१८) "अपने अपने धाम, और अधिकार दिखादो"। "जिससे रूप अनेक, धरुवहरीति सिखादो"। "बिछुड़े पति के साथ, मुझे गठजोड़ मिलादो"। "कर दोनों पर प्यार, सुधा भर पेट पिलादो"। जब

  • स्वीकार किया।