पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/७४

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६३ गर्भ-रण्डा-रहस्य । ( २१६) "दिये दिये वा चार, दिये” सब देव पुकारे। अब तो आ चल देख, धाम अधिकार हमारे ॥ धर मनमाने वेश, यथारुचि सुन्दर बीले । नेकर पति को सङ्ग, समोद सुधारस पीले ॥ (२२०) पाकर मैं वरदान, बंधी दैविक बन्धन में। पहुँची सब के साथ, स्वर्ग के नन्दनवन में ॥ हँसता हुआ प्रसन्न, मिला बिछड़ा वर मेरा । सुर-प्रसाद पीयूष , पानकर किया बसेरा ॥ (२२१) उमगा दम्पति-योग, घने सुरवर्ष बिताये। वालक साठ सहस्र, सगर के से सुत जाये ॥ वंश-वृक्ष उपजाय, बढ़ाकर फूल फली में। पति को सन्तति सौंप, चलन की चाल चली मैं (२२२) अमरपुरी की ओर, भारती बनकर आई। रहे देवगुरु साथ, ब्रह्मपुर लों पहुँचाई ॥ मधु कैटभ दो रूप, धारकर पहुँची आगे। धर मराल पर जीन, चढ़े चतुरानन भागे॥

  • खराब।