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पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/७५

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€8 गर्भ-रण्डा-रहस्य। (२२३) निकट रहा वैकुण्ठ, मानली सम्मति मति की। बन प्रद्युम्न कुमार, भड़क देखी मापति की। पहुँची त्र्यम्बका धाम, भूतगण गरजे सारे। जनकसुता का वेश, धार पशुनाथ निहारे ॥ (२२४) दौड़ी बन हनुमान, भानु गूलर सा गपका । राहु बनी विकराल, देखते ही विधु झषका ॥ होकर काकभुशुण्ड, घुसी राघव के मुख में। लोक अनेक विलोक, कल्प दश काटे सुख में॥ (२२५) ठौर ठौर अविराम, रही फिरती न रुकी मैं। छोड़ इन्द्र, यम-धाम, और सब देख चुकी मैं॥ कृष्णा : वनकर ठाठ, देख लूं शक ससुर के। निरबॅगी नरकादि, अन्त को अन्तकपुर के ॥ (२२६) यों विचार कर देह, द्रौपदी की अपनाई। इन्द्रसभा सुविशाल, निरख नीकी मनभाई। वासव ने भगभोग, रूप रसराशि रची थी। दक्षिण ओर जयन्त, वामदिश वाम शचीथी॥

  • विष्णु ।। महादेव । द्रौपदरी ।