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पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/९०

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गर्भरण्डा-रहस्य। (२८३) लपक ले गये माल, पुरोहित, पण्डित, पाधा। किया नगर में नाम, काम धन से सब साधा। जननी को इस भाँति, मिली भरपेट बड़ाई। कुछ दिन बीते टाँग, सुकृत की ओर अड़ाई ॥ (२८०) बोल मुझे कर प्यार, कहा सुन कमला बेटी। सुन ले बढ़िया बात, धर्मरस-रीति लपेटी ॥ मुझ को राँड बनाय, नाथ सुरधाम सिधारे। कटते हैं सुखहीन, कुदिन जीवन के सारे ॥ श्रेयस्कर सुविचार, एक उमगा है मन में। अब तो रहना ठीक, नहीं घर के बन्धन में॥ लेकर तुझको साथ, तीरथों पर बिचरूँगी। दर्शन, मजन, पान, महासुख मान करूँगी। (२८६) यद्यपि मुझ को इष्ट, न था कुविचार निकम्मा। तो भी रुचि विपरीत, पड़ा कहना चल अम्मा! सुनकर मेरी बात, बढ़ा साहस जननी का। निश्चित किया तुरन्त, दिवस चलने का नीका ॥ (२८५)