पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/९१

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८० (२८८) गर्भ रसडा-रहस्य। (२८७) धर्म सुकृत की ओर, भनि-भाजन मन जोड़ा। घर का किया प्रबन्ध, सुरक्षक चाकर छोड़ा। मा अपने अनुकूल, यथोचित कर तैयारी। लेकर मुझको और, मदन को साथ सिधारी॥ पहले वह गोस्वामि, सदन गोकुल का देखा। जिसका ब्लाकट आदि,लिख चुके हैं 'शुभ लेखा। ब्रजमण्डल के अन्य, धाम सुप्रसिद्ध मझारे । सब में ठाकुर ठोस, चेतना रहित निहारे ॥ अवधपुरी में जाय, पाय रघुवर की झाँकी । फिर देखी हनुमान, सुभट की प्रतिमाबाँकी । सरजू और प्रयाग, न्हाय झट पहुँची काशी। निरखे गोल मटोल, विश्वनायक अविनाशी॥ (२६०) उमड़ा परमानन्द, प्रेम उमगा पितरों का। पहुँच गया में, दूर, किया उपताप मरों का ॥ गूंद गूंद कर भात, पिण्ड लुड़काये फल तर्पण किया समोद, शुद्ध फलगू के जल से ॥ (२८६) 1