पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/९२

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८१ 1 (२६२) गर्भ-रण्डा रहस्य। (२६१) छवि देखी जगदीश, भवन की परम सुहाई धार वेश विपरीत, सभ्यता छुपकर छाई । छुआ-छूत कर दूर, भेद-भ्रम से मुख मोड़ा। सब की जूठन खाय, धर्म का स्वरस निचोड़ा॥ सेतुबन्ध अवलोक, ध्यान धर सीतावर का। देखा भवन विशाल, उमापति रामेश्वर का ॥ शिव का अङ्ग प्रसिद्ध, हटाकर पुष्प, उघारा। सुरसरिता का नीर, बोट भर छोड़ पखारा ॥ पहुँच द्वारिका धाम, गोमती जलनिधिन्हाई। पुष्कर आदि विलोक, देव-सरिता-तट आई ॥ देखा वह हरिद्वार, कुम्भ का अनमिल मेला। धींग सनातनधर्म, खेल जिसमें खुल खेला ॥ निरखे साधु, गृहस्थ, जुड़े अनमेल अखाड़े। पढ़ते थे मतवाद, भेद के विकट पहाड़े। सब ने धाम पवित्र, कर दिया मल से मैला। बढ़ विशूचिका रोग, रुद्रबल पाकर फैला॥ (२६३) (२६४)

  • द्वारिका का साला।