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गल्प समुच्चय

को उज्ज्वल दर्पण दिखाती और चकोरों को चाँदनी की चाशनी चखाती हुई, राका-रजनी-रमणी आ पहुँची। उस समय मालूम हुआ, मानों यह दुनिया ज्योत्स्ना-तरङ्ग में स्नान कर रही है।

चटाई पर बैठे-बैठे कुमार अनुक्षण रूप-सुधा-माधुरी पान कर रहे थे। चन्द्रमा के किरण जाल में अपने सौन्दर्य सुरसरी गत मन-मीन को फंँसाने की असफल चेष्टा कर रहे थे। कभी सिन्दुरिये आम और चिबुक से, कभी विकसित किंशुक-कुसुम और नासिका से, कभी अंगूर के गुच्छों और स्तन-स्तवक से कभी पके जम्बूफल और कुन्तल-कलाप से, कभी अनार-दानों और सुशोभन दन्त-पंक्ति से, कभी पकी हुई नारङ्गी और देह की गौरवमयी गौरता से तथा कभी मृगशावक के आकर्ण-विस्तृत नेत्रों और तूती के तरलायत लोचनों से सादृश्य मिलाते थे। कभी कण्ठ से विद्रुम की माला निकालकर उसमें उन कोमल अधरों की-सी अरुणिमा ढूँढ़ते थे। किन्तु वह पीन-घन-सजीव शोभा कहीं मिलती न थी।

एकाएक प्रेमान्ध होकर फिर कुमार ने कहा—हे कन्दर्प-कीर्ति-लतिके! ये तेरे विषम विशिख-सरीखे नयन तो शेर के शिकारियों का भी शिकार करने वाले अचूक आखेटक मालूम होते हैं?—भोली-भाली तूती कूपमण्डूक थी। उस वन्याश्रम और उस कुञ्ज-कुटीर के सिवा भी कोई स्थान संसार में है, यह उसे मालूम ही नहीं था, कुमार की उक्तियाँ सुनकर, सरल हँसी हँसती हुई, तूती उनका मुख निहारती रह जाती थी। तूती का भोलापन