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पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/२४८

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गल्प समुच्चय

इस देवी को रोते देखा। कुछ ही देर पहले यह हँस रही थी। इसका रोना देखकर मैं अधीर हो गया। इसे भूख-प्यास के कारण रोते जानकर, मैं विमल-सलिला गङ्गा में से थोड़ा जल और कुछ जंगली फल ले आया; किन्तु इसने मेरा सत्कार स्वीकार नहीं किया है। इसका कारण मुझे ज्ञात नहीं। इसके सिवा मेरा कोई अपराध नहीं। अभी तक मैंने इस देवी की केवल मानसिक पूजा की है। इस अलौकिक रूप ने मुझे अपना किंकर बना लिया है। मैं इस अमूल्य रत्न का भिक्षुक हूँ। आप इस अपराध को यदि दण्डनीय समझते हैं, तो इस अतुलनीय रूप-रत्न का याचक बनकर मैं आपका शाप भी ग्रहण कर सकता हूँ।

राजकुमार की सच्ची बातें सुनकर महात्मा ने कहा-हम तुम्हारे सद्भाव से सन्तुष्ट हैं। तुम राजकुमार जान पड़ते हो। तुम्हारा ब्रह्मचर्य-प्रदीप्त मुख-मण्डल देखकर हम प्रसन्न हैं। यह कन्या गंगा की बाढ़ में बहकर आई थी। हमने बड़े स्नेह से उसका पालन-पोषण किया है। आज हमारा स्नेह-सम्बद्धन सार्थक हुआ। हमारे-जैसे विजन-वन-विहारी वातास्तु-पर्णाहारी की कुटी में इसको कष्ट होता था। यह तुम्हार राजमन्दिर के ही योग्य है। हम हृदय से आशीर्वाद देते हैं कि यह मणि-काञ्चन-संयोग सफल हो। मणि का स्थान राजमुकुट ही उपयुक्त है।

(६)

शशि-शेखर-कुमार भी एक राजा के लाड़ले पुत्र ही तो थे। अकण्टक सुख से पला हुआ उनका शरीर मक्खन-सा मुलायम