सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/२५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२३८
गल्प-समुच्चय

( ७ )

अहा! जो तूती शून्यारण्य में चहकती थी, जिसके कुन्तल कपाल को पन्नगी-परिवार समझकर मयूर-माला अपनी चोंचों से धीरे-धीरे बखेरती थी, जिसके दिये हुए अनारदानों को चखनेवाले शुक-शावक कुटी के पास वृक्ष-शाखाओं पर बैठकर नित्य ही कलरव करते थे, जिसकी बोली सुनकर जङ्गली मैना भी अपनी बोली बिसार कर वैसी ही मीठी बोली बोलने का अभ्यास किया करती थी, जिसके फूलों से भरे अचल में से बावले-उतावले भ्रमरों का मुण्ड निकल-निकलकर, सुरभित-श्वास-समीर के लोभ से, घ्राण-रन्ध्र के पास टूट पड़ता था, वही तूती अब राज-प्रासाद के मखमली पर्दो में, वृहद्दर्पणालंकृत विविध-चित्र विभूषित विलास मन्दिरों में और खस की टट्टियों से जड़ी हुई बारहदरियों में बन्द रहने लगी। जो बिजली वन में तूती की शोभा निहारकर आरती उतार जाती थी, अब वही बिजली खिड़कियों की राह से भो झाँकने नहीं पाती-तड़प-तड़पकर बाहर ही रह जाती है! वन्य वृक्ष लतादिकों को सींचने के समय तूती के विधु-वदन पर जो श्रम-स्वेद-कण परिलक्षित होते थे, उन्हें प्रकृति देवी अपनी पवनान्दोलित लतिका-कन्याओं के पुष्पमय अञ्चलों से पोंछ लेती थीं; अब उन्हीं कुंडल कलित कल-कपोलों को शशि-शेखर-कुमार अपनी सुगन्ध सिक्त रेशमी रुमालों से पोंछकर, उन्हें आखों से लगा लेते हैं। जो हाथ झंझावात के झोंके से इतस्ततः उलझी हुई लताओं को सुधारने में सधे थे, अब वे ही हाथ हारमोनियम और सितार पर सध गये।