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तूती-मैना

संसार का सारा सौन्दर्य यदि प्रेम की सुगन्ध से शून्य हो जाय, तो ईश्वर ने अपने 'मनोरञ्जन' के लिये जो यह विश्व-महा-नाटक रचा है, उसका पहला पर्दा कभी न उठे। सारा खेल मटियामेट हो जाय। प्रेम की सुगन्ध के बिना यह जीवन-कुसुम सौन्दर्य की थाली ले कर क्या करेगा?

देखिये, जिन पर्वत-शिलाओं पर घास-पात का पर्दा पड़ा था, जिनका कलेवर काई से ढका रहता था, जिन पर चाँदनी भी आकाश से उतरकर घड़ी-भर के लिये रँगरलियाँ मचा जाती थी, वही शिलाएँ आज पहाड़ की चोटियों से उतरकर प्रेमवश दृष्टि-उन्मेषिणी एवं लोचनानन्ददायिनी मूर्ति बनकर, देव-मन्दिरों में आ डटी हैं। अब उनका कलेवर प्रकृति की गोद में पले हुए फूलों से ढका हुआ नहीं है; बल्कि दूध की धाराओं से सींची हुई संगमर्मरी क्यारियों में फूलनेवाले फूलों के मोटे-मोटे गजरे उन्हें पहनाये जाते हैं! काई के बदले अब हरे रंग की ज़रीदार मखमली पोशाक सुशोभित हो रही है! यही इस परिवर्तनशील संसार की विचित्रता है!

मैना! तू वनवासिनी, परी पीजरे आनि;
जानि देव-गति ताहि में, रही शान्त मुख मानि।


कहें 'मीर' कवि नित्य, बोलतो मधुरे बैन;
तौभी तुझको धन्य, बनी तू अजहूं 'मै-ना'।