तुम्हारी इच्छा की अवश्य ही यथा-शक्ति पूर्ति करूंगा। ऐसा करने से मुझे बड़ा आनन्द मिलता है।
सुशीला—सो जानती हूँ देव! यद्यपि आपने मेरी सुश्रूषा के लिये दो-दो परिचारिकायें नियुक्त कर दी हैं; पर तो भी मैं सोचती हूँ कि यदि इस समय कोई अपना आत्मीय स्वजन आ जाता, तो बड़ा अच्छा होता। दोनों परिचारिकायें मेरी बड़ी सेवा करती हैं; पर तो भी जो स्नेह, जो आदर अपने आत्मीय से मिल सकता है, वह इन परिचारिकाओं से प्राप्त नहीं हो सकता।
सत्येन्द्र—इसमें सन्देह नहीं। इस विषय में मैं भी सोचता था; पर कुछ समझ में नहीं आता। बहुत सोचने पर भी कोई ऐसा आत्मीय नहीं दिखाई पड़ता, जिमके आ जाने से तुम्हारी सेवा- सुश्रषा की मधुर व्यवस्था हो सके। मेरी चचेरी भाभी हैं—उनका स्वभाव तुम जानती ही हो—वह बड़ी कर्कशा हैं। और भी दो-एक निकट सम्बन्धिनी हैं; पर वे भी सब लगभग एक हीसी हैं। तुमने कुछ इस विषय में सोचा है प्रिये?
सुशीला—नाथ! यदि गुणसुन्दरी को बुला लिया जाये, तो कैसा हो?
सत्येन्द्र—बहुत उत्तम। तुमने बहुत ठीक सोचा। वास्तव में उसके आ जाने से सब ठीक हो जायगा।
गुणसुन्दरी सुशीला की छोटी बहिन है। उसका विशद परिचय हम अगले परिच्छेद में देंगे-सत्येन्द्र स्थानीय कॉलेज में साहित्य के प्रोफेसर थे। उन्होंने दूसरे दिन कॉलेज पहुँचते ही