सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/२९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२८३
उमा

मेरा तो यह बर्ताव और इसकी यह तोताचश्मी। इसी के लिये उमा को धोखा देता हूँ, नित नई-नई चालें खेलता हूँ, रुपये ऐंठता हूँ और इसके कलेजे में भरता हूँ। घण्टों घर से गायब रहता हूँ, महीनों बीत गये, आधी रात से पहले कभी घर नहीं गया। प्रायः सारी रात बाहर ही कट जाती है। उमा मन में क्या सोचती होगी? मन-ही-मन में कुढ़ती होगी। यह बड़ी बेजा बात है।

सड़क सामने आ गई। कोचवान बैठा ऊँघ रहा था। उसे 'साहब' के इतना शीघ्र लौट आने पर बड़ा आश्चर्य और दुःख हुआ—ग़रीब की नींद भी पूरी न होने पाई, गाड़ी रवाना हुई औंर आध घण्टे में बँगले पर पहुंच गई।

बिहारी का विचार था, कि उमा ड्राइंग-रुम में पड़ी हुई अपनी हालत पर अफसोस करती होगी, या सो गई होगी; लेकिन ड्राइंग रूम ख़ाली पड़ा था, वहाँ कोई न था। उन्होंने शयनागार में जाकर देखा, उमा वहाँ भी न थी। एक-एक कमरे में जाकर देखा—उमा कहीं भी दिखाई न दी। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ।

नौकर बरामदे में पड़ा सो रहा था, बाबू साहब ने उसे जगाया और पूछा—मलकिन कहाँ हैं?

"हूजूर कुछ बताया नहीं, कहीं घूमने गई हैं।'

बिहारी का माथा ठनका, सहस्रों शङ्कायें घेरने लगीं—यह क्या माजरा है? ज़िन्दगी से आजिज़ आकर उसने कहीं जान तो नहीं दे दी? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। उमा ऐसी नादान नहीं, उससे ऐसी मूर्खता नहीं हो सकती। फिर, क्या बात है?