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गल्प-समुच्चय

कर चलूँगा? मैं अपने दिल को अपने वश में नहीं रख सकता। यदि बिहारी को ये बातें मालूम हो गई, तो वे क्या कहेंगे? दोस्ती, मुरौवत सबका अन्त हो जायगा और बदनाम भी हो जाऊँगा। मैं वहाँ जाता ही क्यों हूँ? अच्छा, आज से कभी न जाऊँगा; परन्तु इस पवित्र संकल्प का उसी समय अन्त हो जाता, जब उमा के यहाँ से बुलावा आता।

उमा के हृदय में प्रतिशोध की इच्छा प्रबल थी। वह बिहारी को दिखा देना चाहती थी कि स्त्री केवल पुरुषों की इच्छाओं की दासी नहीं—उसके अपने भी स्वत्व हैं, अधिकार हैं, इच्छाएँ हैं। रतन उसकी कार्य-सिद्धि के साधन-मात्र थे। उमा नित्य नया श्रृङ्गार करती, नये-नये, आभूषण पहनती, नई-नई साड़ियाँ बदलती, रतन को रिझाती और उनका साहस बढ़ाती। इस कार्य में कहाँ तक इच्छाओं का भाग था और कहाँ तक उस गुप्त प्रेरणा का, जो हमें अज्ञात रूपसे कार्य-सम्पादन में योग देती है—यह कहना कठिन है! किन्तु इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं कि उमा में कार्य-सिद्धि की वह प्रबल कामना थी, जो बलिदान के मूल्य की परवा नहीं करती।

फागुन का महीना था, सन्ध्या का समय। ऋतुराज के आगमन के आनन्द में कुसुम-कुञ्ज और पुण्य-उद्यान सौरभ, सौन्दर्य, अलङ्कार और रङ्ग से वैसे ही सजे हुए थे, जैसे परदेश से लौटे हुए पतियों का स्वागत करने के लिए युवती रमणियाँ शृङ्गार करती हैं। उमा और रतन वाटिका में टहल रहे थे। उमा ने