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पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/३०१

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उमा

एक दिन सन्ध्या-समय वायु-सेवन के बाद रतन जब होस्टेल लौटे तब उन्हें अपने कमरे में एक बन्द लिफाफा पड़ा मिला। रतन ने लिफ़ाफ़ा उठाकर देखा, हस्त-लिपि उमा की थी। रतन का हृदय वेग से धड़कने लगा। काँपते हुए हाथों से लिफ़ाफ़ा खोला। पत्र में लिखा था—

'प्रिय रतन,

आज पाँच दिन हो गये। तुमने सूरत नहीं दिखाई। क्या मुझसे नाराज़ हो? बड़ी प्रतीक्षा कराते हो? परन्तु इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं, दोष मेरा है कि प्रेम के हाथों ऐसी बिक गई। अब कब आओगे? आज सध्या-समय अवश्य आना। मैं तुम्हारा इन्तज़ार करूँगी।

दर्शनाभिलाषिनी,

उमा।'

पत्र देखकर रतन को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा था कि उमा ने खूब खरी-खोटी सुनाई होगी; लेकिन यहाँ तो पाँसा ही पलटा हुआ था। रतन के हदय-सागर में आनन्द की लहरें उठने लगीं। आज पहला ही अवसर था कि उमा ने स्पष्ट शब्दों में अपने मन की बात कही। आज उन्हें प्रत्येक वस्तु में सुन्दरता दिखाई देती थी और प्रत्येक वस्तु में स्वाभाविक सहानुभूति। नीरव गगन में वसन्त की मधुर श्री फूटी पड़ती थी। कुसुम-कुञ्जों से आती हुई समीर सुगन्ध से लदी हुई थी। सामने वृक्ष पर चहकती हुई छोटी-छोटी चिड़ियों के सुमधुर कल-रव में प्रेम के राग थे।