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पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/५४

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गल्प-समुच्चय


पालू को अपनी भूल का ज्ञान हो गया, सिर झुकाकर बोला-"तो जो कहें वही करने को उद्यत हूँ।"

इतनी जल्दी काम बन जायगा, पिता को यह आशा न थी। प्रसन्न होकर कहने लगा-"जो कहूँगा, करोगे?"

"हाँ करूँगा।"

"स्त्री को उसके घर भेज दो।"

पालू को ऐसा प्रतीत हुआ मानो किसी ने विष का प्याला सामने रख दिया हो। यदि उसे यह कहा जाता, कि तुम घर से बाहर चले जाओ और एक-दो वर्ष वापस न लौटो, तो वह सिर न हिलाता; परन्तु इस बात से, जो उसकी भूलों की निकृष्टतर स्वीकृति थी, उसके अन्तःकरण को दारुण दुःख हुआ। उसे ऐसा प्रतीत हुआ, मानो उसका पिता उसे दण्ड दे रहा है और उससे प्रतीकार ले रहा है। वह दण्ड भुगतने को तैयार था; परन्तु उसका पिता इस बात को जान पाये, यह उसे स्वीकार न था। वह इसे अपने लिये अपमान का कारण समझता था; इसलिए कुछ क्षण चुप रहकर उसने क्रोध से काँपते हुए उत्तर दिया-

"यह न होगा।"

"मेरी कुछ भी परवा न करोगे?"

"करूँगा; पर स्त्री को उसके घर न भेजूंगा।"

"तो मैं भी तुम्हें पराँवठे न खिलाता रहूँगा। कल से किनारा करो।"

जब मनुष्य को क्रोध आता है, तो सबसे पहले जीभ बेकाबू