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संन्यासी

"किस तरह मारा है ?"

"चिमटे से मारा है।"

भोलानाथ के हृदय पर जैसे किसी ने हथौड़ा मार दिया। उन्होंने ठण्डी साँस भरी और चुप हो गये। सुखदयाल धीरे-धीरे अपने घर की ओर रवाना हुआ; परन्तु उसकी बातें ताई के कानों तक उससे पहले जा पहुची थीं। उसके क्रोध की कोई थाह नहीं थी। जब रात्रि अधिक चली गई और गली-मुहल्ले की स्त्रियाँ अपने-अपने घर चली गई, तो उसने सुखदयाल को पकड़ कर रहा-"क्यों बे कलमुँहे, चाचा से क्या कहता था?"

सुखदयाल का कलेजा काँप गया । डरते-डरते बोला- "कुछ नहीं कहता था।"

"तू तो कहता था, ताई मुझे चिमटे से मारती है।"

बालकराम पास खड़ा था, आश्चर्य से बोला-"अच्छा, अब यह छोकरा हमारी मिट्टी उड़ाने पर उतर आया है।"

सुखदयाल ने आँखों-ही-आँखों ताऊ की ओर देखकर प्रार्थना की कि मुझे इस निर्दयी से बचाओ; परन्तु वहाँ क्रोध बैठा था। आशा ने निराशा का रूप धारण कर लिया। ताई ने कर्कश स्वर से डाँटकर पूछा-

"क्यों, बोलता क्यों नहीं?"

"अब न कहूँगा"

"अब न कहूँगा। न मरता है, न पीछा छोड़ता है। खाने को देते जाओ, जैसे इसके बाप की जागीर पड़ी है।"