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रमा०—रूपये होंगे तो माल बहुत मिल जायेगा।

जौहरी——कभी-कभी दाम रहने पर भी अच्छा माल नहीं मिलता। यह कहकर जौहरी ने फिर हार को केस में रखा और इस तरह सन्दुक को समेटने लगा, मानो वह एक क्षण भी न रुकेगा।

रतन का रोआँ-रोआँ काम बना हुआ था, मानों कोई कैदी अपनी किस्मत का फैसला सुनने को खड़ा हो। उसके हृदय की सारी ममता, ममता का सारा अनुराग, अनुराग को सारो अधीरता, उत्कंठा और चेष्टा उसी हार पर केन्द्रित हो रही थी, मानों उस के प्राण उसी हार के दानों में जा छिपे थे, मानों उसके जन्म-जन्मान्तरों को संचित अभिलाषा-सी हार पर मंडरा रही थी। जोहरी को सन्दूक बन्द करते देखकर वह जल विहीन मछली की भाँति तड़पने लगी। कभी वह सन्दूक खोलती, कभी वह दराज खोलती; पर रुपये कहीं न मिले।

सहसा मोटर की आवाज सुनकर रतन ने फाटक की ओर देखा। वकील साहब चले आ रहे थे। वकील साहब ने मोटर बरामदे के सामने रोक दी और चबूतरे की तरफ चले। रतन ने चबूतरे के नीचे उतरकर कहा——आप तो नौ बजे आने को कह गये थे?

वकील——वहाँ कोरम ही पूरा न हुआ, बैठकर क्या करता? कोई दिल से तो काम करना नहीं चाहता, सब मुफ्त में नाम कमाना चाहते हैं। यह क्या कोई जौहरी है?

जौहरी ने उठकर सलाम किया।

वकील साहब रतन से बोले——क्यों, तुमने कोई चीज़ पसन्द की?

रतन——हाँ, एक हार पसन्द किया है, बारह सौ रुपये माँगता है।

वकील——बस! और कोई चीज पसन्द करो। तुम्हारे पास सिर की कोई अच्छी चीज नहीं है।

रतन——इस वक्त मैं यही हार लेंगी। आजकल सिर की चीजें कोन पहनता है।

वकील——लेकर रख लो, पास रहेगी तो कभी पहन भी लोगी; नहीं तो कभी दूसरों को पहने देख लिया,तो कहोगी, मेरे पास होता, तो मैं भी पहनती।

वकील साहब को रतन से पति का-सा प्रेम नहीं, पिता का-सा स्नेह

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