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सोचती रमानाथ भी कहीं बैठे यही मेध-क्रीड़ा देखते होंगे। इस कल्पना में उसे विचित्र आनन्द मिलता। किसी माली को अपने लगाये पौधों से, किसी बालक को अपने बनाये हुए घरौंदों से जितनी आत्मीयता होती है, कुछ वैसा ही अनुराग उसे उन आकाशगामी जीवों से होता था, विपत्ति में हमारा मन अन्तर्मुखी हो जाता है। जालपा को अब यही शंका होती थी, कि ईश्वर ने मेरे पापों का दण्ड दिया है। आखिर रमानाथ दूसरों का गला दबाकर ही तो रोज रुपये लाते थे। कोई खुशी से तो न देता था। यह रुपये देखकर वह कितनी खुश होती थी। इन्हीं रुपयों से तो नित्य शौक-श्रृंंगार की चीजें आती रहती थीं ! उन वस्तुओ को देखकर अब उसका जी जलता था। यही सारे दुखों की मूल हैं। इन्हीं के लिए तो उसके पति को विदेश जाना पड़ा। ये चीजें उसकी आँखों में अब काँँटों की तरह गड़ती थी, उसके हृदय में शूल की तरह चुभती थी।

आखिर एक दिन उसने इन सब चीजों को जमा किया—मखमली स्लीपर, रेशमी मोजे, तरह-तरह की बेलें, फ़ोते, पिन, कंधियाँ, आइने, कोई कहां तक गिनाये। अच्छा खासा एक ढेर हो गया। वह इस ढेर की गंगाजी में डुबा देगी, और अबसे एक नए जीवन का सूत्रपात करेगी। इन्हीं वस्तुओं के पीछे आज उसकी यह गति हो रही है। आज वह इस माया-जाल को नष्ट कर डालेगी। उसमें कितनी ही चीजें ऐसी सुन्दर थी कि उन्हें फैंंकते मोह आता था, मगर ग्लानि को उस प्रचण्ड ज्वाला को पानी के छींटे क्या बुझाते। आधी रात तक वह चीजों को उठा-उठाकर अलग रखती रही, मानों किसी यात्रा की तैयारी कर रही हो। हाँ, यह वास्तव में यात्रा ही थी— अंधेरे से उजाले को; मिथ्या से सत्य को। मन में सोच रही थी, अब यदि ईश्वर की दया हुई और वह फिर लौटकर आये, तो वह इस तरह घर रखेगी कि थोड़े-से-थोड़े में निर्वाह हो जाय। एक पैसा भी व्यर्थ खर्च न करेगी। अपनी मजदूरी के उपर एक कौड़ी भी घर न आने देगी। आज उसके नये जीवन का प्रारम्भ होगा।

ज्यों ही चार बजे, सड़क पर लोगों के आने-जाने की आहट मिलने लगी, जालपा ने बेग उठा लिया, और गंगा स्नान करने चली। बेग बहुत भारी था, हाथ में उसे लटकाकर दस कदम भी चलना कठिन हो गया। बार-बार

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