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हाथ बदलती थी ! यह भय भी लगा हुआ था कि कोई देख न ले। बोझ लेकर चलने का उसे कभी अवसर न पड़ा था। इक्केवाले चुकारते थे पर वह उधर कान न देती थी। यहां तक कि हाथ बेकाम हो गये,तो उसने बेग को पीठ पर रख लिया, और कदम बढ़ाकर चलने लगी। लम्बा चूंघट निकाल लिया था कि कोई पहचान न सके।

वह घाट के समीप पहुँची तो प्रकाश हो गया था। सहसा उसने रतन को अपनो मोटर पर आते देखा। उसने चाहा, सिर झुकाकर मुंह छिपा ले, पर रतन ने दूर ही से पहचान लिया। मोटर रोककर बोली-कहाँ जा रही हो बहन, यह पीठ पर बेग कैसा है? जालपा ने घूंघट हटा लिया और निशंक होकर बोली——गंगा-स्नान करने जा रही हूँ!

रतन——मैं तो स्नान करके लौट आयी। लेकिन चलो, तुम्हारे साथ चलती हूँ। तुम्हें घर पहुँचाकर लौट जाऊँगी। बेग रख दो।।

जालपा——नहीं-नहीं, यह भारी नहीं है। तुम जाओ, तुम्हें देर होगी। मैं चली जाऊँगी।

मगर रतन ने मोटर कार से उतरकर उसके हाथ से बेग ले ही लिया और कार में रखती हुई बोली——क्या भरा है तुमने इसमें, बहुत भारी है। खोलकर देखू?

जालपा——इसमें तुम्हारे देखने लायक कोई चीज नहीं है।

बेग में ताला न लगा था। रतन ने खोलकर देखा, तो विस्मित होकर बोली——इन चीजों को कहां लिये जाती हो?

जालपा ने कार पर बैठते हुए कहा——इन्हें गंगाजी में बहा दूंगी।

रतन ने और भी विस्मय में पड़कर कहा——गंगा में ! कुछ पागल तो नहीं हो गयी? चलो, घर लौट चलो। बेग रखकर फिर आ जाना।

जालपा ने दृढ़ता से कहा——नहीं रतन, मैं इन चीजों को डुबाकर ही जाऊँगी।

रतन——आखिर क्यों?

जालपा——पहले कार को बड़ाओ, फिर बताऊँ।

रतन——नहीं, पहले बता दो!

ग़बन
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