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हैं, उन्हें मैं उम्र भर नहीं भूल सकता। मुंह पर बड़ाई करना खुशामद है: लेकिन दादा, माता-पिता के बाद जितना प्रेम मुझे तुमसे है उतना और किसो से नहीं। तुमने ऐसे गाढ़े समय मेरी बांह धकड़ी जब मैं बीच धार में बहा जा रहा था। ईश्वर ही जाने, अन तक मेरी क्या गति हुई होता, किस घाट लगा होता !'

देवीदीन ने बृहल से कहा——और जो कहीं तुम्हारे दादा ने मुझे घर में न धुसने दिया तो?

रमा ने हँसकर कहा——दादा तुम्हें अपना बड़ा भाई समझेंगे, तुम्हारी इतनी स्वातिर करेंगे, कि तुम ऊब जानोगे। जालपा तुम्हारे चरण धो-धो पियेगी, तुम्हारी इतनी सेवा करेगी कि जबान हो जानोगे।

देवीदीन मे हँसकर कहा——तब तो बुढ़िया डाह के मारे जल भरेगी। मानेगी नहीं, नहीं तो मेरा जी चाहता है कि हम दोनों अपना डेरा-डेटा लेकर चलते और वहीं अपनी सिरकी तानते। तुम लोगों के साथ जिन्दगी‌ के बाकी दिन आराम से कट जाते। मगर इस चुडैल से कलकत्ता न छोड़ जायगा। तो बात पक्की हो गयी न?

'हाँ, पक्की हो है।'

'दुकान खुले तो चलें, कपड़े लायें और पाज ही सिलने को दे दें।'

देवीदीन के चले जाने के बाद रमा बड़ी देर तक अानन्द-कल्पनाओं में मग्न बैठा रहा। जिन भावनाओं को कभी उसने अपने मन में आश्रय न दिया था, जिनकी गहराई, विस्तार और उद्वेग से वह इतना भयभीत था, कि उनमें फिसलकर डूब जाने के भय से चंचल मन को उधर भटकने भी न देता था, उसी अथाह और अछोर कल्पना-सागर में वह आज स्वच्छन्द रूप से क्रीड़ा करने लगा। उसे अब एक नौका मिल गयी थी। वह त्रिवेणी की सैर, बह अलफ्रेड पार्क की बहार, वह खुसरो बाग़ का आनन्द, वह मित्रों के जलसे, सब याद श्रा-आकर हृदय को गुदगुदाने लगे। रमेश उसे देखते ही गले लिपट जायेगा। मित्रगरण पूछेगे, कहां गये थे यार ? खून' सैर की ? रतन उसकी खबर पाते ही दौड़ी पायेगी और पूछेगी——तुम कहां व्हरे ये बाबूजी, मैंने सारा कलकत्ता छान मारा। फिर जालपा को मान-प्रतिमा सामने आ खड़ी हुई।

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