सहसा देवीदीन ने आर कहा—— भैया, दस बज गये, चलो बाजार होते आयें।
रमा ने चौककर पूछा——क्या दस बज गये?
देवी०——दस नहीं, ग्यारह का अमल होगा।
रमा चलने को तैयार हुआ; लेकिन द्वार तक आकर रुक गया।
देवीदीन ने पूछा——क्यों, खड़े कैसे हो गये?
'तुम्हीं चले जाओ; मैं जाकर क्या करूंगा!
'क्यों डर रहे हो?
'नहीं, डर नहीं रहा हूँ, मगर फायदा?
'मैं अकेले जाकर क्या करूंगा। मुझे क्या मालूम, तुम्हें कौन कपड़ा पसन्द है। चलकर अपनी पसन्द का ले लो। वहीं दरजी को दे देंगे।'
'तुम जैसा कपड़ा चाहे ले लेना। मुझे सब पसन्द है।'
'तुम्हें डर किस बात का ? पुलिस तुम्हारा कुछ नहीं करेगी। कोई
तुम्हारी तरफ ताकेगा भी नहीं।'
'मैं डर नहीं रहा हूं, दादा ! जाने की इच्छा नहीं है।'
'डर नहीं रहे तो क्या कर रहे हो। कह रहा हूँ, कि कोई तुम्हें कुछ न कहेगा, इसका मेरा जिम्मा; मुदा तुम्हारी जान निकली जाती है।'
देवीदीन ने बहुत समझाया, आश्वासन दिया: पर रमा जाने पर राजी न हुआ। वह डरने से कितना ही इनकार करे, पर उसको हिम्मत घर से बाहर निकलने की न पड़ती थी। वह सोचता था, अगर किसी सिपाही ने पकड़ लिया, तो देवीदीन क्या कर लेगा। माना सिपाही से इसका परिचय भी हो, तो यह आवश्यक नहीं कि वह सरकारी मामले में मैत्री का निर्वाह करें। यह मिन्नत खुशामद करके रह जायगा, आयेगी मेरे सिर। कहीं पकड़ जाऊँ, तो प्रयाग के बदले जेल जाना पड़े। आखिर देवीदीन लाचार होकर अकेला ही गया।
देवीदीन घण्टे-भर में लौटा, तो देखा, रमा छत पर टहल रहा है। बोला——कुछ खबर है, के बज गये ? बारह का अमल है आज रोटी न बनाओगे क्या? घर जाने की खुशी में खाना-पीना छोड़ दोगे?
रमा ने झेंपकर कहा——बना लूँगा दादा, जल्दी क्या है।