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मालपा-मुझसे तो न कहा जायगा।

शहजादी-मैं कह दूँगी।

जालपा-नहीं-नहीं, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ। मैं जरा उनके मातृ-स्नेह की परीक्षा लेना चाहती हूँ।

वासंती ने शहजादी का हाथ पकड़कर कहा-अब उठेगी भी कि यहाँ सारी रात उपदेश ही देती रहेगी।

शहजादी उठी, पर जालपा रास्ता रोककर खड़ी हो गई और बोली नहीं अभी बैठो बहन, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ।

शहजादी-जब यह दोनों चुड़ैलें बैठने भी दें। मैं तो तुम्हें गुर सिखाती हूँ, और यह दोनों मुझ पर भल्लाती है। सुन नहीं रही हो, मैं भी विष की गाँठ हूँ।

वासंती-विष की गांठ तो तु है ही।

शहजादी-तुम भी तो ससुराल से साल भर बाद आयी हो, कौन-कौन-सी चीजें बनवा लायीं ?

वासंती-और तुमने तीन साल में क्या बनवा लिया ?

शहजादो-मेरी बात छोड़ो, मेरा खसम तो मेरी बात ही नहीं पूछता।

राधा-प्रेम के सामने गहनों का कोई मूल्य नहीं।

शहजादो-तो सूखा प्रेम तो तुम्हीं को फले !

इतने में मानकी ने आकर कहा-तुम तीनों यहाँ बैठकर क्या कर रही हो ? चलो, वहां लोग खाने पा रहे हैं !

तीनों युवतियां चली गयीं। जालपा माता के गले में चन्द्रहार की शोभा देखकर मन-ही-मन सोचने लगी-गाहनों से इनका जी अब तक नहीं भरा।

महाशय दयानाथ जितनी उमंगों से व्याह करने गये थे, उतना ही हतोत्साह होकर लौटे। दीनदयाल ने खूब दिया लेकिन वहां से जो कुछ मिला, वह सब नात्र-समाशे, नेग-चार में खर्च हो गया। बार-बार अपनी भूल पर पछताते, क्यों दिखावे और तमाशे मैं इतने रुपये खर्च किये ? इसकी जरूरत ही क्या थी? ज्यादा से ज्यादा लोग यही कहते-महाशय बड़े कृपय हैं। इतना सुन लेने में क्या हानि थी ? मैंने गांव वालों को तमाशा

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