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दिखाने का ठीका तो नहीं लिया था। यह सब रमा का साहस है, उसी ने सारे खर्चा बढा-बढाकर मेरा दिवाला निकाल दिया। और सब के तक जे खो दस-पांच दिन टल भी सकते थे, पर सराफ़ किसी तरह न मानता था। शादी के सातवें दिन उसे एक हजार रुपये देने का वादा किया था। सातवें दिन सराफ़ आया; मगर यहाँ रुपये कहाँ थे ? दयानाथ में लल्लो-चप्पो की आदत न थी; मगर आज उन्होंने चकमा देने की खूब कोशिश की। किस्त बांधकर सब रुपये छः महीने में अदा कर देने का वादा किया। फिर तीन महीने पर आये; मगर सराफ भी एक ही घुटा हुआ आदमी था, उसी वक्त टला जब दयानाथ ने तीसरे दिन बाकी रकम की चीजें लौटा देने का वादा किया, और यह भी उसकी सज्जनता ही थी। वह तीसरा दिन भी आ गया, और अब दयानाथ को अपनी लाज रखने का कोई उपाय न सुझता था। कोई चलता हुआ आदमी शायद इतना व्यग्र होता, हीले हवाले करके महाजन को महीनों टालता रहता; लेकिन, दयानाथ इस मामले में अनाड़ी थे।

जागेश्वरी ने आकर कहा-भोजन कब से बना ठंडा हो रहा है। खाकर तब बैठो।

दयानाथ ने इस तरह गर्दन उठायी, मानो सिर पर सैकड़ों मन का बोझ लदा हुआ है। बोले-तुम लोग जाकर खा लो, मुझे भूख नहीं है।

जागेश्वरी-भूख क्यों नहीं है, रात भी तो कुछ नहीं खाया था ? इस तरह दाना पानी छोड़ देने से महाजन के रूपये थोड़े ही अदा हो जायेंगे।

दयानाथ-मैं सोचता हूँ, उसे आज क्या जवाब दूंगा ? मैं तो विवाह करके बुरा फंस गया ? बहू कुछ गहने लौटा तो देगी?

जागेश्वरी-बहू का हाल तो सुन चुके, फिर भी उससे ऐसी आशा रखते हो। उसको टेक है कि जब तक चन्द्रहार न बन जायगा, कोई गहना हो न पहनूंगी। सारे गहने सन्दूक में बन्द कर रखे हैं। बस, वहीं एक बिल्लौरो हार गले में डाले हुए है। बहुएँ बहुत देखीं पर ऐसी बहू न देखी थी। फिर कितना बुरा मालूम होता है कि कल को आई बहू, उससे गहने छीन लिए जाय।

दयानाथ ने चिढ़कर कहा- तुम तो जले पर नमक छिड़कती हो,

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