पृष्ठ:ग़बन.pdf/१८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

उन्मत्त शब्द भी। जालपा के घर अगर वह शान न थी, वह दौलत न थी, तो वह दिखावा भी न था, वह ईर्ष्या भी न थी। रमा जवान था, रूपवान था, चाहे रसिक भी हो; पर रतन को अभी तक उसके विषय में सन्देह करने का कोई अवसर न मिला था, और जालपा जैसी सुन्दरी के रहते हुए उसको सम्भावना भी न थी। जीवन के बाजार में और सभी दुकानदारा की कुटिलता और ज़टूपन से तंग आकर उसने इस छोटी दूकान का आश्रय लिया था, किन्तु यह दुकान भी टूट गयी। अब वह जीवन की सामग्रियाँ कहाँ बेसाहेगी, सच्चा माल कहाँ पायेगी ?

एक दिन वह ग्रामोफोन लायी और शाम तक बजाती रही। दूसरे दिन ताजे मेवों की एक टोकरी लाकर रख गयी। जब आती कोई न कोई सौगात लिये आती। अब तक रामेश्वरी से बहुत कम मिलती थी, पर अब बहुधा उसके पास आ बैठती और इधर-उधर की बातें करती। कभी-कभी उसके सिर में तेल डालती और बाल गूंथती। गोपी और विश्वम्भर से भी अब उसे स्नेह हो गया। कभी-कभी दोनों को मोटर पर घुमाने ले जाती स्कूल से आते ही दोनों उसके बंगले पर पहुँच जाते और कई लड़कों के साथ वहाँ खेलते। उनके रोने चिल्लाने और झगड़ने में रतन को हार्दिक आनन्द प्राप्त होता था। वकील साहब को भी अब रमा के घरवालों से कुछ आत्मीयता हो गयी थी। बार-बार कहते——रमा बाबू का कोई खत आया ? कुछ पता लगा? उन लोगों को कोई तकलीफ़ तो नहीं है ?

एक दिन रतन आयी, तो चेहरा उतरा हुआ था, आँखें भारी हो रही थीं। जालपा ने पूछा- आज जी अच्छा नहीं है क्या ?

रतन ने कुण्ठित स्वर में कहा——जी तो अच्छा है; पर रात-भर जागना पड़ा। रात से उन्हें बा कष्ट है। जाड़ों में उनको दमे का दौरा हो जाता है। बेचारे जाड़ों भर एमलशन और सनाटोजन और न जाने कौन से रस खाते रहते हैं। पर यह रोग गला नहीं छोड़ता। कलकत्ते में एक नामी वैद्य हैं। अवको उन्हीं से इलाज कराने का इरादा है। कल चली जाऊँगो। मुझे ले तो नहीं जाना चाहते, कहते हैं, वहाँ बहुत कष्ट होगा, लेकिन मेरा जी नहीं मानता। कोई बोलनेवाला तो होना चाहिए। वहाँ दो बार ही आयी हूँ और जब-जब गयी हैं बीमार हो गयी है। मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता; लेकिन

ग़बन
१८३