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लोग तो अगंरेजीं पढ़ें है, सो देख लेव, कुछ मानते ही नहीं। मुझे तो कुछ और ही सन्देह हो रहा है। कभी-कभी गंवारों को भी सुन लिया करो। सो देख लेव, आप मानो चाहे न मानो, मैं तो एक ने को लाऊँगा। बंगला के ओझे सयाने मसहूर हैं।

वकील साहब ने मुँह फेर लिया। प्रेत-बाधा का वह हमेशा मजाक उड़ाया करते थे। कई ओझों को पीट चुके थे। उनका ख्याल था कि यह प्रवंचना है, ढोंग है; लेकिन इस वक्त उनमें शक्ति भी न थी कि टीमल के इस प्रस्ताव का विरोध करते। मुँह फेर लिया।

महाराज ने चाय लाकर कहा——सरकार चाय लाया हूँ।

वकील साहब ने चाय के प्याले को क्षुधित नेत्रों से देखकर कहा——ले जाओ, अब न पीऊंगा। उन्हें मालून होगा, तो दु:खी होंगी। क्यों महाराज, जब से मैं आया हूँ मेरा चेहरा कुछ हरा हुआ है ?

महाराज ने टीमल की ओर देखा। वह हमेशा दूसरों की राय देखकर राय दिया करते थे। खुद सोचने की शक्ति उनमें न थी। अगर टीमल ने कहा है, आप अच्छे हो रहे हैं, तो वह भी इसका समर्थन करेंगे। टीमल ने इसके विरुद्ध कहा है, तो उन्हें भी इसके विरुद्ध ही कहना चाहिए। टीमल में उसके असमंजस को भापकर कहा——हरा क्यों नहीं हुआ है। हाँ जितना होना चाहिये उतना नहीं हुआ।

महाराज बोले——हाँ, कुछ हरा जरूर हुआ है मुदा बहुत कम।

वकील साहब ने कुछ जवाब नहीं दिया। दो-चार वाक्य बोलने के बाद वह शिथिल हो जाते थे और दस-पाँच मिनट शान्त अचेत पड़े रहने थे। कदाचित् उन्हें अपनी यथार्थ दशा का ज्ञान हो चुका था। उनके मुख पर, बुद्धि पर, मस्तिष्क पर मृत्यु की छाया पड़ने लगी थी। अगर कुछ आशा थी, तो इतनी ही कि शायद मन की दुर्बलता से उन्हें अपनी दशा इतनी हीन मालूम होती हो। उनका दम अब पहले से ज्यादा फूलने लगा था, कभी-कभी तो ऊपर की साँस ऊपर ही रह जाती थी। जान पड़ता था, बस प्राण निकला।

भीषण प्राण-वेदना होने लगती थी। कौन जाने, कब यही अवरोध एक क्षण और बढ़कर जीवन का अन्त कर दे।

ग़बन
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