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'कुछ नहीं होगा माँँ जी, आप गेहूँ तो लाइए।'

रामेश्वरी ने उसका हाथ पकड़कर उठाने की कोशिश करके कहा— —गेहूँ घर में नहीं है। अब इस वक्त बाजार से कौन लाये।

'अच्छा चलिए, मैं आपके भण्डारे में देखूँ। गेहूँ होगा कैसे नहीं। रसोई की बगल वाली कोठरी में सब खाने-पीने का सामान रहता था। रतन अन्दर चली गयी और हांडियों में टटोल-टटोलकर देखने लगी। एक हांड़ी में गेहूँ निकल आये। बड़ी खुश हुई, बोली——देखो माँ जी, निकले कि नहीं, तुम मुझसे बहाना कर रही थीं।

उसने एक टोकरी में थोड़ा गेहूँ निकाल लिया और खुश-खुश चक्की पर जाकर पीसने लगी। रामेश्वरी ने जाकर जलपा से कहा——बहु, वह जांत पर बैठी गेहूं पीस रही है। उठाती हूँ, उठती ही नहीं। कोई देख ले तो क्या कहे ?

जलपा ने मुंशी जी के कमरे से निकलकर सास की घबराहट का आनंद उठाने के लिए कहा——यह तुमने क्या गजब किया अम्माजी। सचमुच, कोई देख ले तो नाक कट जाय ! चलिए, जरा देखूं।

रामेश्वरी ने विवशता से कहा——क्या करूँ, मैं तो समझा के हार गयी, मानती ही नहीं।

जलपा ने जाकर देखा तो रतन गेहूँ पीसने में मग्न थी। बिनोद के स्वाभाविक आनंद से उसका चेहरा खिला हुया था। इतनी ही देर में उसके माथे पर पसीने की बूंदें आ गयी थी। उसके बलिष्ठ हाथों जांत लट्टू के समान नाच रहा था।

जलपा ने हँसकर कहा——ओ री, आटा महीन नहींं पीसे तो, पैसे न मिलेंगे !

रतन को सुनाई न दिया। बहरों की भांति अनिश्चित भाव से मुसकुराई। जलपा ने और जोर से कहा——आटा, खूब महीन पीसना, नहीं पैसे न पाऐगी ! रतन ने भी हंसकर कहा——जितना महीन कहिए उतना महीन पीस , बहू जी पिसाई अच्छी मिलनी चाहिये !

जलपा——घेले सेर।

रतनघे——ले सेर नहीं ?

जालपा——मुंह धो आओ! धेले सेर मिलेंगे।

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