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रोज़ के व्यवहार की मालूली चीजें जिन्हें अब तक बह टालता आता था, अब अबाध रूप से आने लगी। देवीदीन के लिए वह एक सुन्दर रेशमी चादर लाया। जन्गो के सिर में पीड़ा होती रहती थी। एक दिन सुगन्धित तेल की दो शीशियाँ लाकर उसे दे दी। दोनों निहाल हो गये। अब बुढ़िया कभी अपने सिर पर बोझ लाती तो उसे डाँटता, काकी, अब तो मैं चार पैसे कमाने लगा, अब तू क्यों जान देती है। अगर फिर कभी तेरे सिर पर टोकरी देखी, तो कहे देता हूँ, दुकान उठाकर फेंक दूँँगा। फिर मुझे जो सज़ा चाहे दे देना। बुढ़िया बेटे की डांट सुनकर गद्गद् हो जाती। मण्डी से बोझ लाती तो पहले चुपके से देखती, रमा दूकान पर तो नहीं है ! अगर वह बैठा होता, तो किसी कुली को एक-दो पैसा देकर उसके सिर पर रख देती ! वह न होता, तो लपकी हुई आती और जल्द से बोझ, उतारकर शान्ति से बैठ जाती, जिसमें रमा भाँप न सके।

एक दिन 'मनोरमा थियेटर' में राधेश्याम का कोई नया ड्रामा होने वाला था। इस ड्रामे की बड़ी धूम थी। एक दिन पहले से ही लोग अपनी जगह रक्षित करा रहे थे। रमा को भी अपनी जगह रक्षित करा लेने की धुन सवार हुई। सोचा, कहीं रात को टिकट न मिला, तो टापते रह जायेंगे। तमाशे की बड़ी तारीफ है। उस वक्त एक के दो से देने पर भी जगह न मिलेगी। इसी उत्सुकता ने पुलीस के भय को पीछे डाल दिया। आफत नहीं आयी है कि घर से निकलते ही पुलीस पकड़ लेगी। दिन को न सही, रात को तो निकलता ही हूँ। पुलीस चाहती तो क्या रात को न पकड़ लेती, फिर मेरा वह हुलिया भी नहीं रहा। पगड़ी चेहरा बदल लेने के लिए काफी है। यौं मन को समझाकर वह दस बजे घर से निकला। देवीदीन कहीं गया हुआ था। बुढ़िया ने पूछा——कहाँ जाते हो बेटा ? रमा ने कहा——कहीं नहीं काकी, अभी आता हूँ।

रमा सड़क पर आया, तो उसका साहस हिम की भाँति पिघलने लगा। उसे पग-पग पर शंका होती थी, कोई कांसटेबिल न आ रहा हो। उसे विश्वास था कि पुलीस का एक-एक चौकीदार भी उसका हुलिया पहचानता है और उसके चेहरे पर निगाह पड़ते ही पहचान लेगा। इसलिए वह नीचे सिर झुकाये चल रहा था। सहसा उसे खयाल आया, गुप्त पुलीसवाले सादे

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