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उनकी आँखों सेचाने के लिए वह कुछ इस तरह दूसरे आदमियो की आड़ खोजने लगा कि मामूली आदमी को भी उस पर सन्देह होना स्वाभाविक था। फिर पुलिसवालों की मँजो हुई आँखें क्यों चूकती ? एक ने अपने साथी से कहा——यो मनई चोर न होय, तो तुमरी टांगन ते निकर जाई। कस चोरन को नाई ताकत है। दूसरा बोला——कुछ सन्देह हमऊ का हुद रहा है। फुरे कहो पाँडे, असली चोर है।

तीसरा आदमी मुसलमान था, उसने रमानाथ को ललकारा——ओ जी, ओ पगड़ी, जरा इधर आना, तुम्हारा क्या नाम है ?

रमानाथ ने सीनाजोर के भाव से कहा——हमारा नाम पूछकर क्या करोगे ? क्या मैं चोर हूँ?

'चोर नहीं, तुम साड हो, नाम क्यों नहीं बताते ?'

रमा ने एक क्षण आगा-पीछा किया और फिर हड़बड़ाकर कहा हीरालाल।

'घर कहाँ है ?'

'हाँ, घर पूछते हैं ! '

'शाहजहाँपुर।'

'कौन मुहल्ला ?'

रमा शाहजहाँपुर न गया था, न कोई कल्पित नाम ही उसे याद आया कि बता दे। दुस्साहस के साथ बोला——तुम मेरा हुलिया लिख रहे हो।

कांसटेबल ने भबकी दी-तुम्हारा हुलिया पहले से ही लिखा हुआ है। नाम झूठ बताया, सकूमत झूठ बतायी, मुहल्ला पूछा तो बगलें झांकने लगे। महीनों से तुम्हारी तलाश हो रही है, आज जाकर मिले हो। चलो थाने पर।

यह कहते हुए उसने रमानाथ का हाथ पकड़ लिया। रमा ने हाथ छुड़ाने की चेष्टा करके कहा—— वारंट लाओ, तब हम चलेंगे। क्या मुझे। कोई देहाती समझ लिया है ?

कांस्टेबल ने एक सिपाही से कहा——पकड़ लो जी इनका हाथ, वहीं थाने पर वारंट दिलाया जायगा।

शहरों में ऐसी घटनाएं मदारियों के तमाशे से भी ज्यादा मनोरंजक

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