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रुपये आपके हुक्म से लाया हूँ। आपको अपना कौल पूरा करना पड़ेगा। कहके मुकर जाना नीचों का काम है।

इतने कठोर शब्द सुनकर दारोगाजी को भन्ना जाना चाहिए था; पर उन्होंने जरा भी बुरा न माना। हँसते हुए बोले——भई, अब चाहे नीच कहो चाहे दगाबाज; पर हम इन्हें छोड़ नहीं सकते। ऐसे शिकार रोज़ नहीं मिलते। कौल के पीछे अपनी तरक्की नहीं छोड़ सकता।

दारोगा के हँसने पर देवीदीन और भी तेज हुआ-तो आपने कहा किस मुंह से था?

दारोगा——कहा तो इसी मुँँह से था, लेकिन मुँह हमेशा एक-सा तो नहीं रहता। इसी मुँह से जिसे गाली देता हूँ, उसकी इसी मुंह से तारीफ भी करता हूँ।

देवी——(तिनककर) यह मूछे मुड़वा डालिए।

दारोगा——मुझे बड़ी खुशी से मंजूर है। नीयत तो मेरी पहले ही थी, पर शर्म के मारे न मुड़वाता था। अब तुमने दिल मजबूत कर दिया।

देवी——हँसिए मत दारोगाजी, आप हंसते हैं और मेरा खून जला जाता है। मुझे चाहे जेहल ही क्यों न हो जाय लेकिन मैं कप्तासाहब से जरूर कह दूँगा। हूँ तो टके का आदमी, पर आपके अकबाल से बड़े बड़े अफ़सरों तक पहुँच है !

दारोगा——अरे यार, तो क्या सचमुच कप्तान साहब से मेरी शिकायत कर दोगे?

देवीदीन ने समझा कि धमकी कारगर हुई। अकड़कर बोला——आप जब किसी की नहीं सुनते, बात कहकर मुकर जाते है, तो दूसरे भी अपनी-सी करेंगे ही। मेमसाहब तो रोज ही दुकान पर आती है।

दारोगा——अगर तुमने साहब या मेम साहब से मेरी कुछ भी शिकायत की, तो कसम खाकर कहता हूँ, घर खुदवाकर फेंक दूंगा।

देवी——जिस दिन मेरा घर खुदेगा, उस दिन यह पगड़ी और चपरास भी न रहेगी हुजूर।

दारोगा——अच्छा तो मारी हाथ पर हा—थ ! हमारी तुम्हारी दो-दो चोटें हो जायें, यही सही !

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